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आगरा में 1978 की बाढ़ का आंखों देखा हाल: एक ऐसी त्रासदी जो भूल नहीं सकते

आगरा: 8 सितंबर 2025

उत्तराखंड और पहाड़ों में लगातार हो रही भारी बारिश के कारण ऊपरी अपस्ट्रीम बैराजों से ज़्यादा पानी छोड़े जाने के बाद यमुना नदी उफान पर है। दिल्ली में यमुना नदी के जल स्तर से 1978 का रिकॉर्ड टूट गया।

यहां 1978 की बाढ़ की चर्चा आखिर क्यों की जा रही है। पिछली शताब्दी में केवल दो ही ऐसी बाढ़ सरकारी आंकड़ों में दर्ज हैं जिनके अनुसार सबसे ज्यादा तबाही हुई थी। ये थीं 1924 की और 1978 की बाढ़।

आज हम यहां 1978 की बाढ़ की चर्चा करेंगे, क्यों कि हम इस बाढ़ के चश्मदीद गवाह हैं। उस समय हमारी उम्र 25 बरस की थी, युवा थे, और चूंकि यमुना से लगे हुए क्षेत्र बेलनगंज में हमारा निवास था, तो बाढ़ के डूब क्षेत्र में ही रहना हमारी मजबूरी थी।

पुराने सभी रिकॉर्ड तोड़ चुकी यमुना नदी उफान पर है। इसे देखते हुए 48 बरस पहले 1978 में यमुना नदी में आई बाढ़ की यादें ताजा हो गईं हैं।

बेलनगंज चौराहा पर 4 फीट पानी में निकलते हुए लोग

साल था 1978, तारीख थी 3 सितंबर, यमुना का जलस्तर बढ़ना शुरू हुआ, रोज एक डेढ़ फीट पानी बढ़ जाता था, दिन में तो जल स्तर पता नहीं चलता था, लेकिन रात को जब सो जाते थे, और दूसरे दिन सुबह जब देखते थे तो पता चलता था कि डेढ़ फीट पानी बढ़ गया। यह सिलसिला 6 दिन चला और जल स्तर खतरे के निशान से दस फीट ऊपर पहुंच गया।

तब आज की तरह कोई संचार तंत्र था नहीं, न ही कोई समाचार तंत्र। केवल अखबारों से ही समाचार मिलता था वो भी दूसरे दिन सुबह। न तो मोबाइल था और न टीवी। पता ही नहीं चलता था कि कल क्या होगा।

बिजली का करेंट फैलने से कोई अप्रिय घटना न घटे इसलिए बिजली सप्लाई भी बंद कर दी गई थी, वाटर वर्क्स के सभी पंप और मोटर पानी में डूब चुके थे सो पानी की सप्लाई भी बंद हो गई।जो लोग डूब क्षेत्र में घरों में रह गए थे, उनके सामने पीने के पानी की विकराल समस्या खड़ी हो गई थी, नहाने की तो बात ही छोड़ दीजिए। बोतलों में पानी बिकता नहीं था जो स्टॉक कर लेते। पीने का पानी नलों और कुओं से लिया जाता था।

शाम होते ही हम सभी परिजन छत पर चले जाते थे, रात होते ही चारों ओर सन्नाटा पसर जाता था, चारों ओर घुप अंधेरे में सन्नाटे को चीरती थी ट्रांजिस्टर की आवाज। उन दिनों रात को साढ़े ग्यारह बजे तक ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती पर गीतों का कार्यक्रम आता था, वही सुनते थे।

एक दिन तो रात को दो बजे बड़ी जोर का धमाका हुआ, आवाज इतनी तेज थी जैसे बम फटा हो। रात में तो यही अनुमान लगाया कि कोई मकान ढह गया। सुबह पता चला कि पड़ोस में एक दाल मिल था जिसकी पंद्रह फीट ऊंची दीवार गिर गई। हालांकि इस दुर्घटना में कोई जनहानि नहीं हुई।

यमुना किनारा रोड, स्टीमर से लोगों को निकालते सेना के जवान

बेलनगंज, फ्रीगंज, जीवनी मंडी, दरेसी, हाथी घाट, बल्केश्वर समेत इलाकों में नाव और स्टीमर चले थे। सेना ने राहत कार्यों की कमान संभाली थी। बेलनगंज, कचौड़ा बाजार, भैंरो बाजार, फ्रीगंज, नाला भैरों, मोतीगंज, दरेसी में चार से 8 फुट तक पानी भर गया था। यमुना किनारा रोड पर तो दस फीट तक पानी तेज बहाव के साथ बह रहा था। बेलनगंज फाटक सूरजभान से सेक्सरिया रोड पर तो दस फीट पानी था, पहली मंजिल पानी में डूब चुकी थी। यहां की हवेलियों और दो-तीन मंजिला मकानों में रहने वाले लोग ऊपर की मंजिलों पर रहने चले गए थे, नीचे की मंजिल में रहने वाले लोग घर खाली करके अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे। यमुना नदी के किनारे बने आवासों से लोगों को पलायन करना पड़ा था।

उस समय बलबीर सिंह बेदी एसएसपी थे। रोज रात को स्टीमर में पेट्रोलिंग के लिए निकलते थे। फाटक सूरजभान सेक्सरिया रोड निवासी नवल किशोर श्रोत्रिय ने बताया, एक रात कप्तान स्टीमर में पेट्रोलिंग कर रहे थे, टॉर्च से मकानों का जायजा ले रहे थे, हम खिड़की से झांक रहे थे, जैसे ही टॉर्च हम पर पड़ी, उन्होंने तुरंत हमें टोका और तुरंत अपने साथ लाए ब्रेड और खाद्य सामग्री हमको देते हुए सतर्क रहने का निर्देश देते हुए आगे बढ़ गए।

फाटक सूरजभान से सेकसरिया रोड पर दस फीट पानी

एक दो दिन नहीं, बल्कि छह दिनों तक आगरा की सड़कों पर बाढ़ के कारण स्टीमर और नाव चलाए गए थे। मोतीगंज बाजार में चीनी, देसी खांड, नमक, दाल, आटा और सूजी के गोदाम में पानी भरने से सब बर्बाद हो गया था। व्यापारियों ने गोदामों में दीवार लगाई, पर यह भी काम नहीं आई। उस समय मोती गंज थोक का बाजार था जहां रोजमर्रा के समान की बिक्री होती थी।

पानी में बैलगाड़ी पर सामान लेकर जाते लोग

तब हमारे पास कोई काम तो था ही नहीं, तो हमने स्वयंसेवक के रूप में नाव में जा जाकर लोगों को राशन, आटा, पानी, सब्जी, देकर राहत दिलाने का कार्य किया। रोज सुबह आसपास के सभी हमउम्र इकट्ठे हो जाते थे और निकल पड़ते थे राहत कार्य में। बेलन गंज पुराना मोहल्ला है, आपस में छतों के जुड़े होने से राहत कार्य आसान हो गया था। घर से निकल कर कमर कमर पानी में जाकर दूर दराज से दूध, सब्जी लाकर लोगों तक पहुंचने का काम करते थे। हमारे एक मित्र के पास कार थी, उस कार में पन्द्रह बीस किलोमीटर दूर से आलू, बैंगन जैसी सब्जियां बोरियों में भरवा कर लाते थे और जरूरतमंद लोगों को मुफ्त में बांटा करते थे।

मुझे आज भी याद है बेलन गंज यमुना किनारे मथुरेश जी मंदिर के पास के एक मकान में फंसे परिवार को जब नाव से निकालने का प्रयास हो रहा था, तब वह नाव पलट गई, परिवार के चार सदस्य यमुना के तेज बहाव में बह गए थे। बचाव कार्य में लगे सभी अच्छे तैराक थे, बड़ी मुश्किल से दो सदस्य ही बचाए जा सके। हाहाकार मच गया।

एक और घटना याद आ रही है, जब एक खाली मकान में रात को चोरों ने हाथ साफ किया और लाखों का सामान चुरा ले गए। पता तब लगा जब पानी उतर गया और उस मकान के लोग वापस रहने के लिए आए।

बेलनगंज फाटक सूरजभान तक बाढ़ के पानी में एक मंजिल पूरी डूब चुकी थी। वहां एक ट्रक खड़ा था जो पूरा पानी में समा चुका था। यमुना किनारा रोड पर पानी लगभग दस फीट के आसपास था, मोतीगंज और आसपास के बाजार में दुकानों में पानी भर जाने से व्यापारी बर्बाद हो गए थे।

तब संसाधन थे नहीं, सूचना तंत्र भी इतना मजबूत नहीं था, कोई मोबाइल नहीं, टीवी नहीं, केवल अखबारों से एक दिन पहले की जानकारी हो पाती थी, अखबार भी डूब क्षेत्र में वितरित नहीं हो पाते थे। जो लोग इन इलाकों में रह रहे थे उनको सही जानकारी भी नहीं हो पाती थी, इसलिए नुकसान ज्यादा हुआ था।

जीवनीमंडी चौराहे से वाटर वर्क्स रोड पर एल आई सी के सामने स्वयं जगत नारायण शर्मा

एक बात और याद आ रही है, आगरा का वाटर वर्क्स पूरा पानी में डूब चुका था, सारे पंप, मोटर पानी में डूब जाने के कारण शहर में पानी की सप्लाई भी ठप हो गई थी, सुरक्षा की दृष्टि से बिजली की सप्लाई भी बंद कर दी गई थी। रात को सारा इलाका अंधेरे में डूब जाता था, जो लोग इस इलाके में रह रहे थे उन्होंने 6 दिन इसी तरह काटे।

गनीमत रही कि आसमान से बरसात नहीं हुई, सो सारी रात छतों पर सोते हुए कट जाती थी। छठे दिन बाद जब पानी उतरना शुरू हुआ तो जिस गति से बढ़ा था उसी गति से उतरा, जिसमें 6 दिन और लगे। यानि बारह दिन तक लोग घरों में कैद रहे। जिसके बाद सिलसिला शुरू हुआ सफाई का। घरों में, गलियों में, सड़कों पर कीचड़ जमा हो चुकी थी। नगर निगम ने सफाई अभियान चलाया तब कहीं जाकर कूड़ा और गंदगी साफ हो पाई।

नाला भैरों पार्क में चलती नाव

बीमारी फैलने का भी खतरा था सो जिला प्रशासन ने इलाज के लिए स्वास्थ केंद्र खोल दिए थे। सबसे ज्यादा नुकसान तो गांवों में हुआ था, जहां खेतों में खड़ी फसल पानी में डूबकर बर्बाद हो चुकी थी। कुछ पुराने मकान इस त्रासदी को झेल नहीं पाए और ढह गए। हां एक बात और बताने से रह गई, कुछ लोग इस त्रासदी में कालाबाजारी से भी नहीं चूके, औने पौने दामों में रोजमर्रा के समान की बिक्री की। हालांकि प्रशासन की इस पर नजर थी लेकिन चोरी छुपे ये कारोबार भी खूब हुआ।

कुल मिलाकर देखा जाए तो 1978 का साल कुछ ऐसे जख्म दे गया जो लोगों को भुलाए नहीं भूला जा सकता। जिन लोगों ने इस त्रासदी को झेला है, वही इस दर्द को बता सकते हैं, और इसीलिए आज के हालत की तुलना जब 1978 की बाढ़ से हो रही है तो, रोंगटे खड़े करने वाला अहसास होने लगता है।

हालांकि आज सूचना तंत्र और संचार माध्यम अब इतना मजबूत है कि पल पल की खबर मोबाइल और टीवी पर मिल रही है, लेकिन फिर भी 1978 की तुलना से घबराहट सी होने लगती है, प्रभु से यही प्रार्थना है कि उस त्रासदी की पुनरावृत्ति न हो।

प्रस्तुति: जगत नारायण शर्मा

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