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लाखों शिक्षक निशाने पर, टीईटी का विकल्प क्या हो? आंदोलन या समझौते की पहल?_______________________________________________
आगरा: 12 सितंबर 2025
आगरा से लेकर लखनऊ, चेन्नई, केरल के टीचर्स क्लासरूम्स से बाहर निकलकर सड़कों पर मोर्चा लगाने को मजबूर हैं। सुप्रीम कोर्ट के टीईटी अनिवार्यता के आदेश के विरोध में शिक्षक संगठन लामबंद हो रहे हैं।दुविधा बढ़ाने वाली वजह है वो सवाल जो आज पूरे मुल्क की तालीमी फ़िज़ा पर मंडरा रहा है—क्या लाखों सीनियर टीचर्स, अपने करियर के ढलते सालों में, मुफ़लिसी के अंधेरे में धकेल दिए जाएंगे? क्या वो मजबूर हो जाएंगे बुज़ुर्ग आश्रमों में रहने पर या गुज़ारा करने पर नाममात्र की पेंशन से—अगर वो एक मामूली eligibility test पास न कर पाएँ? 1 सितंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले (Anjuman Ishaat-e-Taleem Trust v. State of Maharashtra) के बाद यह सवाल और गहरा हो गया है। कोर्ट ने Right to Education Act, 2009 के तहत Teacher Eligibility Test (TET) को ज़रूरी क़रार दिया है। यानी अब सरकारी, एडेड और नॉन-माइनॉरिटी स्कूलों के तमाम टीचर्स—यहाँ तक कि 2011 से पहले भर्ती हुए 51 लाख से ज़्यादा मौजूदा टीचर्स—को भी अपनी बुनियादी काबिलियत साबित करनी होगी। दो साल में पास नहीं कर पाए तो नौकरी तभी रहेगी जब रिटायरमेंट में पाँच साल से कम बचे हों।
क्वालिटी शिक्षा के हिमायती कहते हैं “मगर चुनौती क़बूल करने की बजाय, मुल्क भर में टीचर्स हड़ताल पर उतर आए हैं। स्कूल ठप हैं, और जिन बच्चों की तालीम की हिफ़ाज़त का दावा ये टीचर्स करते हैं, वही सबसे ज़्यादा नुक़सान झेल रहे हैं। सवाल उठता है—क्या ये बग़ावत इंसाफ़ की पुकार है या फिर ज़िम्मेदारी से बचने की कोशिश?”असल में ये फ़ैसला सज़ा नहीं, बल्कि डूबती तालीमी नज़्म के लिए एक lifeline है। बरसों से हमारे स्कूल औसतपन और लापरवाही की दलदल में फँसे हुए हैं। ASER 2023 की रिपोर्ट कहती है कि आधे क्लास 5 के बच्चे क्लास 2 की किताब भी नहीं पढ़ पाते। ये साफ़ सबूत है कि पढ़ाने वाले ख़ुद क़ाबिल नहीं। TET तो बस बुनियादी इम्तिहान है, जिसमें पढ़ाने का हुनर और विषय की जानकारी देखी जाती है। फिर भी टीचर्स इसे अस्तित्व का ख़तरा क्यों मान बैठे हैं? यूनियनों को नौकरी जाने का डर है, मगर असली ग़ुस्सा तो उन लाखों बच्चों के हक़ में होना चाहिए जिनकी बुनियादी तालीम ही छिन गई।

धरनों और प्रदर्शनों का आलम ये है कि कोलकाता में 200 TET-पास उम्मीवार असेंबली में घुस आए, नौकरी की मांग करते हुए। वहीं 500 लोग जिनकी अपॉइंटमेंट रद्द हुई, पुलिसवालों की टाँगों से लिपटकर रोते रहे। पटना में 4 सितंबर को उर्दू-बांग्ला TET के उम्मीवारों ने नतीजों में देरी के ख़िलाफ़ दफ़्तरों का घेराव किया। महाराष्ट्र में 10 सितंबर को एक लाख से ज़्यादा टीचर्स छूट की गुहार लगाते नज़र आए। केरल और तमिलनाडु की राज्य सरकारों सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने की तैयारी में हैं। तर्क ये दिया जा रहा है कि सीनियर टीचर्स पर यह ज़ुल्म है, मगर क्या वो ख़ुद इस नाकामी का हिस्सा नहीं जिनकी वजह से पासिंग रेट इतने घटिया हैं? पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि “दलीलें दी जा रही हैं कि इससे राज्य की आज़ादी में दख़ल है, ख़ज़ाने पर बोझ बढ़ेगा, और बुज़ुर्ग टीचर्स की सेहत का क्या होगा। मगर हक़ीक़त ये है कि दुनिया में कहीं भी नाक़ाबिल लोगों को सिरफ़ उम्र के नाम पर बख़्शा नहीं जाता। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ़िनलैंड, जर्मनी—हर जगह टीचर्स को सख़्त इम्तिहानों, ट्रेनिंग और renewal से गुज़रना पड़ता है। भारत क्यों कम पर राज़ी हो? यहाँ भी कोर्ट ने दो साल की मोहलत और रिटायरमेंट के लिए राहत दी है। इसके बावजूद यूनियनें पूरी छूट की मांग कर रही हैं।
“हक़ीक़त ये है कि लम्बी नौकरी और तजुर्बा क़ाबिलियत की गारंटी नहीं। यही वजह है कि लाखों माँ-बाप सरकारी स्कूल छोड़कर प्राइवेट की तरफ़ भाग रहे हैं। कौन बोलेगा उस ग़रीब देहाती बच्चे की तरफ़ से, जिसका मास्टर क्लास ही छोड़ देता है? या उस क़ाबिल नौजवान की तरफ़ से जो TET पास करके भी बेरोज़गार बैठा है?, ये प्रश्न किया रिटायर्ड हेड मास्साब सुभाष जी ने।सोशल एक्टिविस्ट मुक्ता गुप्ता कहती हैं “रास्ता मौजूद है—सरकारें चाहें तो तीन-पाँच साल का वक़्त दें, मुफ़्त कोचिंग और सब्सिडी मुहैया कराएँ, नए भर्ती के लिए TET सख़्ती से लागू करें और बुज़ुर्गों को तालीमी सहूलियत दें। मगर छूट नहीं।”आज निर्णायक मोड़ पर खड़ा है मुल्क का teacher समुदाय।. शिक्षण व्यवस्था या तो पुरानी सहूलियतों से चिपकी रहे, या फिर तालीम में गुणवत्ता और excellence अपनाए। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला हमला नहीं, बल्कि काबिलियत का बिगुल है। हमें और मिट्टीपलीद नहीं करनी भविष्य की उम्मीदों की।
प्रस्तुति-बृज खंडेलवाल






