आगरा: मंगलवार 30 सितंबर 2025
सोडा वाटर की फ़िज़्ज खत्म, अब झाग ही झाग! क्या राजनैतिक स्थिरता नेपाल में लौटेगी? क्या भारत चीन के मध्य बसा ये पहाड़ी देश अपने तीन करोड़ नागरिकों को बेहतर जिंदगी दे पाएगा? ये यक्ष प्रश्न हैं।कुछ जानकार मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था एक महंगा शौक है।
पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं “सफेद हाथियों (नेताओं) के एक बड़े समूह को सत्ता सौंप कर, अपेक्षा करना कि अपनी टंकी फुल करने से पहले वो आम जीव का पेट भरे, ये सपना हो सकता है, यथार्थ नहीं।
नेपाल में राजशाही स्थायित्व दिए हुई थी, फिर भारत से प्रेरित होकर लोकतंत्र की बयार बही, और हमने देखा 17 सालों में 14 बार सत्ता परिवर्तन हुआ, स्टूडेंट्स के हिंसक आंदोलन के बाद अभी भी आग सुलग रही है।”नेपाल ख़तरे के मुहाने पर खड़ा है—वो मुल्क जो दशकों से सियासी उठापटक और टूटी हुई अर्थव्यवस्था से जूझता रहा है। सितंबर में नौजवानों की बग़ावत से जो उम्मीदें जगीं थीं, वो अब राख में बदलती दिख रही हैं।
सवाल वही पुराने हैं: क्या नेपाल कभी स्थायित्व की पटरी पर आ सकेगा? क्या सिस्टम नौजवानों की उमंगों का बोझ उठा पाएगा? क्या पलायन व तस्करी जैसी समाजी बदहाली इसकी तक़दीर तय करती रहेंगी?बग़ावत से बेबसी तकसितंबर की बग़ावत एक अनाड़ी सोशल मीडिया बैन से भड़की। चंद दिनों में सत्तर से ज़्यादा लोग मारे गए, 600 मिलियन डॉलर का इंफ्रास्ट्रक्चर तबाह हुआ और प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली 48 घंटे में गिरे।
थोड़ी देर के लिए ऐसा लगा मानो नया सवेरा आने वाला है—जब ऑनलाइन ताजपोशी में चीफ़ जस्टिस सुशीला कार्की को इंटरिम लीडर घोषित किया गया। मगर धुआं छँटते ही नज़ारा वही पुराना निकला—नक़ली बदलाव और टूटी हुई उम्मीदें।सुकून के पीछे तूफ़ानसड़कों पर शोर-शराबा कम हुआ है, कर्फ्यू हटा लिया गया है, पुलिस की गश्त भी घट गई है।
मगर TikTok और Discord पर नौजवान अब भी इनसाफ़, चुनावी सुधार और करप्शन के ख़ात्मे की माँग कर रहे हैं। क्या नेपाल एक “blocked revolution” में फँस गया है—जहाँ अगर मसला हल न हुआ, तो फिर से ख़ून-ख़राबा, तानाशाही या बाहर से दख़ल का ख़तरा मंडराता रहेगा।सियासत बिना सहारे2008 के बाद से नेपाल में कोई भी हुकूमत अपना टेन्योर पूरा न कर सकी। मौजूदा इंटरिम हुकूमत पर नामुमकिन दबाव है—2026 मार्च तक चुनाव कराए, जुर्म के लिए ज़िम्मेदारों को सज़ा दे और अवाम का भरोसा बहाल करे।
मगर इस कामयाबी पर किसी को भरोसा नहीं।नेपाल की अर्थ व्यवस्था पहले ही नाज़ुक थी। अब हालत ये है कि 2025 में जहाँ 4.5% ग्रोथ का अंदाज़ा था, वो गिरकर लगभग शून्य हो गया। नुकसान 3 ट्रिलियन रुपए (22.5 बिलियन डॉलर)—यानी नेपाल के GDP का आधा। टूरिज़्म बर्बाद, कारोबार बंद और निवेशक भाग खड़े हुए।असल में नेपाल अपनी ताक़त पर नहीं, बल्कि बाहर भेजे गए मज़दूरों की रक़म और इंडिया से आने वाले सामान पर ज़िंदा है। हर रोज़ दो हज़ार नौजवान काम की तलाश में मुल्क छोड़ते हैं।
Remittance GDP का 30% तक है, मगर यही पलायन नेपाल को खोखला कर रहा है। खेती रोज़गार तो देती है मगर पेट नहीं भरती—400 अरब रुपए का सालाना खाद्य आयात करना पड़ता है। इंडस्ट्री महज़ 5–6% GDP में हिस्सेदारी रखती है, वो भी ज़्यादातर इंडिया को edible oil बेचकर।इंडिया पर पूरी निर्भरता70% निर्यात इंडिया ही खा जाता है—कालीन, गारमेंट्स, तेल सब। ईंधन, बिजली, अनाज, मशीनरी सब इंडिया से आता है।
10–15 लाख नेपाली मज़दूर इंडिया में काम करते हैं और हर साल 2–3 बिलियन डॉलर घर भेजते हैं।नेपाल की आबादी का बड़ा हिस्सा नौजवान है—पढ़े-लिखे, डिजिटल, लेकिन बेरोज़गार और परेशान। बेरोज़गारी 20% से ऊपर, per capita income $1,400 पर अटकी और 20% से ज़्यादा लोग अब भी गरीबी में। उनके ख्वाब दम तोड़ रहे हैं। पलायन उनकी रूटीन है, तस्करी कड़वी हक़ीक़त बन चुकी है।
सबसे दर्दनाक मंज़रहर साल 5,000–10,000 नेपाली औरतें और लड़कियाँ तस्करी के ज़रिये इंडिया के sex trade में जा पहुँचती हैं। अंदाज़ा है कि 1 लाख से ज़्यादा नेपाली औरतें अब भी शोषण की ज़ंजीरों में क़ैद हैं। उनकी ज़िंदगी एक साए में गुम हो गई है। बचाव और जागरूकता अभियानों के बावजूद आंकड़े कम नहीं हो रहे—ये साफ़ दिखाता है कि व्यवस्था का डगमगाना सीधा इंसानी बदहाली में तब्दील हो रहा है।
इस मजबूरी को इंसानी सम्मान में बदलना होगा। भारत सरकार भेदभाव न करे बल्कि जीवन स्तर उठाने में नेपाल की मदद करे। नेपाल के लोग भी ये समझें कि भारत ही उनका असली सदाबहार मित्र देश है। एक तरफ़ इंडिया है, जिस पर ज़िंदगी टिकी है, दूसरी तरफ़ चीन, जो मौके की तलाश में है। अगर काठमांडू की सियासत करप्शन की जड़ों पर वार न कर सकी और घरेलू उत्पादकता न बढ़ी, तो ये मुल्क अस्थिरता के अंधे कुएँ में और गहरा गिरता चला जाएगा।
बृज खंडेलवाल द्वारा





