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वंशवाद की ढलती शाम: बिहार की शिकस्त के बाद कांग्रेस का धुंधला होता भविष्य

राहुल का दृष्टिकोण अब भी वहीं अटका है कि विपक्ष का मतलब हर सरकारी निर्णय का विरोध करना

आगरा : बुधवार 19 नवंबर 2025

गांधी परिवार की रणनीति हमेशा यह रही है कि पार्टी का मुखिया कोई ऐसा व्यक्ति हो जो “काबू में” रहे। वर्तमान अध्यक्ष खड़गे इस सोच के लिए बिल्कुल मुफ़ीद साबित हुए। पार्टी के हर स्वतंत्र या प्रभावशाली नेता को धीरे-धीरे किनारे लगाया गया। ममता बनर्जी बाहर हो गईं, शरद पवार को ठंडे बस्ते में भेज दिया गया, जगन रेड्डी दूर चले गए, हेमंत विश्व शर्मा जैसे नेता अपमानित महसूस कर निकल गए। सिंधिया, देवरा, थरूर, पायलट एक लंबी फेहरिस्त है उन लोगों की जिन्होंने या तो हार मान ली या दरकिनार कर दिए गए। सवाल यह नहीं कि गाड़ी का पहिया पंचर है, बल्कि यह है कि गाड़ीवान को मंज़िल का पता ही नहीं। राहुल गांधी आज पीटर पैन की तरह दिखते हैं, जिन्हें बड़ा होना ही मंज़ूर नहीं।2025 के बिहार विधानसभा चुनाव का धुआँ अभी छँटा भी नहीं कि तस्वीर एकदम साफ़ झलकने लगी।

कांग्रेस की अगुवाई वाले महागठबंधन का पतन ऐतिहासिक रहा। 243 सीटों में से कांग्रेस केवल एक पर सिमट गई। यह हार सिर्फ़ एक चुनावी नतीजा नहीं, राहुल गांधी के नेतृत्व पर गहरा अविश्वास भी है। ठीक वैसे ही जैसे इस साल हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में देखा गया।आज कांग्रेस घटकर केवल तीन राज्यों में रह गई है, और इंडिया गठबंधन में भी साथी दल उससे दूरी बना रहे हैं। बिहार का नतीजा अब एक आईना है जिसमें कांग्रेस न दिशा लिए दिखाई देती है, न उद्देश्य। नेतृत्व द्वारा एस्केपिज्म का खेलइस राजनीतिक मलबे के बीच होंठों पर वही पुराने बहाने हैं। राहुल गांधी ने नतीजों को “चौंकाने वाला” और “अनफेयर” करार देकर ज़मीनी हक़ीक़त से अपने फासले को ही उजागर किया।

मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ मीटिंग में फिर “वोट चोरी” का रोना। वही पुरानी स्क्रिप्ट जो अब असरहीन हो चुकी है। यह नेतृत्व नहीं, बचने की कोशिश है। राहुल का दृष्टिकोण अब भी वहीं अटका है कि विपक्ष का मतलब हर सरकारी निर्णय का विरोध करना है, चाहे अर्थव्यवस्था का मामला हो, विदेश नीति हो या सुधारों का। जबकि असली विपक्ष वह होता है जो वैकल्पिक दृष्टि दे, तर्कपूर्ण आलोचना करे और अपनी नीति गढ़े। एक रिएक्शन मशीन बन चुकी पार्टीराहुल के युग में कांग्रेस एक “रिएक्शन पार्टी” बन गई। न विज़न, न दिशा। हर बयान में ग़ुस्सा है, हर बयान में असुरक्षा। चुनाव आयोग को “क़ैदी”, लोकतंत्र को “घेराबंदी में” बताने वाली भाषा जनता के भरोसे को ही कमजोर करती है।

यह वक्त है कि पार्टी अपनी राजनीति में गरिमा लाए, टकराव नहीं, संवाद तलाशे; दीवारें नहीं, पुल बनाएं

नई राजनीति की ज़रूरतबिहार की शिकस्त एक संकेत है। कांग्रेस को बुनियादी पुनर्गठन की जरूरत है। नेतृत्व, विचार और चेहरों, तीनों में नवाचार जरूरी है। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की पुरानी सियासत अब असरदार नहीं रही, विशेषकर बिहार जैसे सूबे में जहाँ जातीय समीकरण ही राजनीति की रीढ़ हैं। आरजेडी पर निर्भरता और यादव, मुस्लिम वोट बैंक की उम्मीद कांग्रेस को बार-बार कमजोर साबित करती रही है। जबकि एनडीए ने हिंदू वोटों के एकत्रीकरण, (कंसोलिडेशन) से अपनी स्थिति मज़बूत की है। कांग्रेस को अब धर्मनिरपेक्षता के अपने पुराने ढाँचे से बाहर निकलकर, एक समावेशी सांस्कृतिक बहुलता का नया नैरेटिव पेश करना होगा ।

कांग्रेस के पास अब खोने को कुछ नहीं बचा, न प्रतिष्ठा, न जनविश्वास। इंडिया गठबंधन के सहयोगी भी उसकी हिंदी पट्टी की कमज़ोरी से बेचैन हैं। वक्त आ गया है पार्टी नई पीढ़ी को निर्णायक जिम्मेदारी दे, बूढ़ी हो चुकी दरबारी राजनीति को किनारे रखे, और युवाओं की आकांक्षाओं, रोजगार, शिक्षा सुधार, डिजिटल समानता, पर केंद्रित नई राजनीति शुरू करे। राहुल गांधी को अब यह स्वीकार करना होगा कि नेतृत्व सिर्फ उपस्थिति का नाम नहीं होता।

2009 की बुलंदी से अब तक के सफर में कांग्रेस का वोट शेयर बीस प्रतिशत से नीचे गिर चुका है, यह सिर्फ़ आंकड़ा नहीं, एक संकेत है कि जनता अब बदलाव चाहती है। अगर राहुल पीछे हटते हैं, तो पार्टी के पास रीसेट का मौका है, ठीक वैसे जैसे भाजपा ने आडवाणी युग के बाद अपने को नया रूप दिया था। लेकिन अगर नहीं हटते, तो यह डूबती नाव और नीचे जाएगी। यूपी में समाजवादी पार्टी पहले ही गठबंधन पर पुनर्विचार कर रही है, और बिहार की लहर का असर वहाँ भी महसूस होने लगा है। बिहार का नतीजा सिर्फ एक हार नहीं, एक चेतावनी है। या तो कांग्रेस अब आत्ममंथन कर जाग जाए, या इतिहास की किताब में एक हाशिया बनकर रह जाए।

पीटर पेन 1902 में लिखे एक उपन्यास का नायक है। राहुल गांधी की छवि की तुलना अक्सर पीटर पैन से की जाती है, वह काल्पनिक लड़का जो बड़ा होने से इंकार करता है। जैसे पीटर पैन कभी-कभी ज़िम्मेदारियों से बचते हुए रोमांच और आदर्शवाद की दुनिया में खोया रहता है, वैसे ही आलोचक कहते हैं कि राहुल गांधी भी राजनीति की कठोर यथार्थवादी दुनिया में पूरी तरह “परिपक्व नेता” की भूमिका अपनाने से हिचकते नज़र आते हैं। पीटर पैन की बाल सुलभ ऊर्जा उसे Neverland का नायक बनाती है।

बृज खंडेलवाल

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