ज़रा गौर से देखिए। हर घर में, हर गली में, हर शहर में एक बम टिक-टिक कर रहा है। हो सकता है आपको दिखाई न दे, लेकिन जल्द ही आपको उसका विस्फोट महसूस होगा।
हम सब देख रहे हैं कि नेपाल में क्या हो रहा है। पूरा देश जल रहा है। इसे किसने जलाया? जेनरेशन ज़ेड ने।उन्होंने अपनी ही संसद, आलीशान होटलों, दुकानों और सड़कों को आग लगा दी। उन्होंने नेताओं का पीछा किया, उन्हें पीटा और जो कुछ भी नज़र आया, उसे आग लगा दी। लेकिन ज़रा रुकिए—उन्होंने किसका देश जलाया? अपना ही। किसके घर राख हो गए? अपने ही। उस तबाही में कौन रहेगा? वे खुद।इस पीढ़ी की बुद्धि का स्तर इतना ऊँचा है। और उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्योंकि किसी ने उनका पसंदीदा खिलौना—सोशल मीडिया—छीन लिया।
अपने शहर या गाँव में घूमिए। क्या आपको जेनरेशन ज़ेड के हाथ में किताबें दिखाई देती हैं? नहीं। आप उन्हें सिर्फ़ फ़ोन के साथ, रीलों में दबे, अंतहीन कॉमेडी क्लिप्स, बॉडी शेमिंग, बेतुके स्टैंड-अप और छिछले कंटेंट में देखते हैं। उनकी ज़िंदगी के हज़ारों घंटे कचरा खाने में, किसी भी नामचीन को सेलिब्रिटी बनाने में बर्बाद हो जाते हैं।

अब ज़रा सोचिए: जब वह खिलौना छीन लिया जाता है, तो एक लाड़-प्यार से पाला गया बच्चा कैसा व्यवहार करता है? बच्चा चीखता है, नखरे करता है, ज़मीन पर लोटता है, लात मारता है और रोता है—चाहे वह कहीं भी हो, चाहे मंदिर में हो, बगीचे में हो या किसी सार्वजनिक जगह पर। जब तक खिलौना उसके हाथ में वापस न आ जाए, कुछ भी मायने नहीं रखता।
यही आज की जेन ज़ेड है। लेकिन उन्हें ऐसा किसने बनाया? सिर्फ़ सोशल मीडिया ने नहीं। हम सबने बनाया है।माता-पिता ने उन्हें लाड़-प्यार दिया। समाज ने कभी सीमाएँ नहीं तय कीं। स्कूलों ने उन्हें जानकारी से तो भर दिया, लेकिन मूल्यों से नहीं। सरकारों ने अरबपतियों को अपनी लत से पैसा कमाने दिया। हमने मिलकर एक ऐसी पीढ़ी को पाला जो घमंडी, गुस्सैल, बेचैन है, जिसमें न धैर्य है, न सम्मान है और न ही जड़ें हैं।

हमारी पाठ्य पुस्तकें हमारे गौरवशाली अतीत के संग्रहालय हैं, लेकिन बच्चे उस संग्रहालय में नहीं रहते। वे इंस्टाग्राम, यूट्यूब, नेटफ्लिक्स में रहते हैं। वे हमारे कपड़े नहीं पहनते। वे हमारा खाना नहीं खाते। वे हमारे मंदिरों में नहीं जाते। वे हमारे लेखकों को नहीं पढ़ते। वे हमारी संस्कृति में सांस नहीं लेते। वे हॉलीवुड का जयकारा लगाते हैं, अपनी विरासत का नहीं।
उनके आधार कार्ड पर भले ही “भारतीय” लिखा हो, लेकिन असल में वे किस देश के हैं? खुद से पूछिए: अगर इंस्टाग्राम एक देश होता, और आपके बच्चे को नागरिकता चुननी होती—तो क्या वह भारत चुनता या इंस्टाग्राम? आपको जवाब पता है।
जिस दिन से वे पैदा होते हैं, उन्हें सैकड़ों प्रभाव—हर रूप में —फ़ोन, रील, विज्ञापन, मशहूर हस्तियाँ, नकली मूर्तियाँ—पकड़ लेते हैं। क्या हमने कभी उन्हें बचाने की कोशिश की? नहीं। इसके बजाय, हम किनारे खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे, जबकि वे ज़ॉम्बी बनते गए—अपने लोगों, अपनी संस्कृति, अपने देश से कटे हुए।
जेनरेशन ज़ेड को अपने देश, उसके स्मारकों, उसके इतिहास, उसके त्योहारों, उसके महान लोगों—यहाँ तक कि अपने माता-पिता के लिए भी ज़रा भी सम्मान नहीं है। और वे सिर्फ़ “बाहर” नहीं हैं। वे हर घर में हैं। वे आपके पड़ोसी के घर में हैं। वे आपके घर में हैं।
नेपाल दूर नहीं है। नेपाल यहीं है। आपके घर के अंदर। आपके परिवार के अंदर। आपके बच्चे के अंदर। टाइम बम टिक-टिक कर रहा है।आप कार्रवाई करने से पहले कब तक इंतज़ार करेंगे? कब तक आप उस युद्ध से जागेंगे जो पहले से ही यहाँ है—बंदूकों और टैंकों से नहीं, बल्कि फ़ोन, रील और नष्ट हो चुके मूल्यों के साथ?सवाल यह नहीं है कि नेपाल को बचाया जा सकता है या नहीं। सवाल यह है—क्या आप अपने घर को फटने से पहले बचा सकते हैं?






