अब होगा असली इम्तिहान स्वदेशी स्वाबलंबन का! अमेरिका का सुनहरा सपना बना रहा है भारत को आत्मनिर्भर……..
आगरा: सोमवार 22 सितम्बर 2025
प्रधान मंत्री के संबोधन से लोगों को अच्छे दिन फिर लौटने की उम्मीद जागी है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि ट्रंप युद्ध का भारत पर कोई असर नहीं होगा। देवी देवताओं की कृपा से मार्केट इकॉनमी बूम करेगी और इंडिया का विश्व गुरु बनने का अभियान गति पकड़ेगा।
एक भ्रम तो अब परमानेंटली टूट चुका है। अमेरिका कभी भारत का सच्चा दोस्त नहीं रहा है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ताज़ा फैसले—H-1B वीज़ा पर 215 डॉलर से बढ़ाकर 1 लाख डॉलर सालाना की फ़ीस और प्रवासी मज़दूरों पर कठोर प्रतिबंध—सिर्फ़ प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि एक सोच-समझी चाल है। अमेरिका वही कर रहा है जो उसकी साम्राज्यवादी और पूंजीवादी रगों में बहता है। दूसरों का शोषण, संसाधनों का दोहन और सहयोगियों को नीचा दिखाकर अपनी ताक़त कायम रखना।
अंकल सैम की दोस्ती कभी मुफ़्त नहीं होती; हर मुस्कान के पीछे छुरा और हर साझेदारी की कीमत का बिल छुपा होता है।भारत दशकों से अमेरिकी छलावे में जीता आया है। कभी “रणनीतिक साझेदारी” का नारा, कभी “लोकतांत्रिक दोस्ती” का दिखावा। पर असलियत यह है कि अमेरिका हमेशा भारत की प्रतिभा, बाज़ार और संसाधनों को निचोड़कर अपने मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल करता रहा है।
ट्रंप का यह फ़ैसला उसी पुरानी नीति की नयी शक्ल है।सच यह है कि H-1B वीज़ा धारकों में सबसे बड़ी हिस्सेदारी भारतीयों की है। पिछले साल दिए गए 85,000 वीज़ा में 61,000 भारतीयों को मिले। यानी यह हमला किसी और पर नहीं, सीधे भारत पर है। ट्रंप के “अमेरिका फ़र्स्ट” का मतलब है “भारत को धकेलो, अपनी जेब भरो”। भारतीय टेक्नोलॉजी वर्कर सिलिकॉन वैली की रीढ़ हैं। माइक्रोसॉफ़्ट, गूगल, अमेज़न—किसी भी दिग्गज कंपनी का नाम ले लीजिए, भारतीय इंजीनियरों के बिना वहाँ का काम ठप हो सकता है अगर स्वाभिमानी इंडियंस अपने वतन लौटने का सामूहिक फैसला लें।
फिलहाल भारतीय आईटी कंपनियों पर इसका सीधा असर पड़ रहा है। टीसीएस, इन्फ़ोसिस, विप्रो जैसी कंपनियाँ पहले से ही मुनाफ़े में गिरावट के लिए तैयार हो रही हैं। नासकॉम ने साफ़ कहा है कि यह केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानवीय संकट है। हज़ारों परिवारों का भविष्य खतरे में है। भारत को हर साल मिलने वाले सौ अरब डॉलर के रेमिटेंस पर सीधा आघात होगा।
ट्रंप की चालाकी यह है कि वे जानते हैं, भारत के पास अभी विकल्प सीमित हैं। एक ओर अमेरिका का विशाल टेक बाज़ार है, दूसरी ओर हज़ारों भारतीय इंजीनियर और उनके परिवारों का भविष्य। भारत चाहे या न चाहे, अमेरिका की इस धौंस को झेलने पर मजबूर है। यही बेबसी है।“द ग्रेट अमेरिकन ड्रीम” अब भारतीयों के लिए टूटता हुआ सपना है। हजारों वर्कर वापसी की राह पर हैं। एयरलाइनों की टिकटें महँगी हो गई हैं क्योंकि डर और अनिश्चितता का माहौल बन चुका है। पर इस बादल भरे आसमान में एक चांदी की परत भी है।
पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “2008 की आर्थिक मंदी याद कीजिए। उस समय हजारों भारतीय सिलिकॉन वैली से लौटे और बेंगलुरु की स्टार्टअप दुनिया में क्रांति आई। आज भी वही इतिहास दोहराया जा सकता है। फर्क सिर्फ इतना है कि आज भारत कहीं ज़्यादा मज़बूत है। 6-7% की जीडीपी ग्रोथ, 5 करोड़ से ज़्यादा आईटी वर्कफ़ोर्स और मज़बूत डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर भारत को इस झटके को अवसर में बदलने की सामर्थ्य रखता है।
“अगर हज़ारों भारतीय इंजीनियर अमेरिका से लौटते हैं तो भारत को एक सुनहरा मौका मिलेगा। ये लोग अपने साथ अनुभव, पूँजी और नेटवर्क लेकर लौटेंगे। पहले ही माइक्रोसॉफ़्ट, गूगल, अक्सेंचर जैसी कंपनियाँ संकेत दे चुकी हैं कि भारत में अपने “कैपेबिलिटी सेंटर्स” का विस्तार करेंगी। आने वाले पाँच वर्षों में पाँच लाख तक नई नौकरियाँ पैदा हो सकती हैं। लौटने वाले इंजीनियर छोटे शहरों और कस्बों में भी नये प्रयोग करेंगे।

स्टार्टअप्स, इनोवेशन लैब्स और स्थानीय उद्यमिता को नई ऊर्जा मिलेगी। यही वह “ब्रेन गेन” होगा, जिसकी भारत को वर्षों से तलाश थी।बेशक चुनौतियाँ भी हैं।
अमेरिका में जहाँ एक इंजीनियर डेढ़ लाख डॉलर कमाता है, वहीं भारत में उसे 20-40 लाख रुपये मिलेंगे। जीवन स्तर में अचानक आई गिरावट असंतोष फैला सकती है। पर भारतीय सामाजिक ढाँचा, परिवार का सहारा और स्थानीय अवसर इस असंतोष को कम कर सकते हैं।
सरकार को चाहिए कि इस लौटती प्रतिभा का सही उपयोग करे। “स्किल इंडिया” जैसे प्रोग्राम्स को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और नयी टेक्नोलॉजी पर केंद्रित किया जाए।
पूर्वी भारत के ओडिशा, झारखंड, बिहार जैसे इलाकों में ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स बसाकर क्षेत्रीय असमानता घटाई जा सकती है। भारत को यूरोप, अफ़्रीका और कनाडा जैसे नये बाज़ारों की ओर भी ध्यान देना होगा।
अमेरिका का इतिहास गवाह है कि उसने कभी भी अपने साझेदारों के हितों की परवाह नहीं की। वियतनाम से लेकर इराक़ तक, अफ़ग़ानिस्तान से लेकर लैटिन अमरीका तक—जहाँ गया, वहाँ उसने तबाही, धोखा और शोषण ही फैलाया। भारत को अब यह भ्रम छोड़ देना चाहिए कि अमेरिका हमारा मित्र है। वह सिर्फ़ एक अवसरवादी शिकारी है।
बृज खंडेलवाल द्वारा




