शनिवार 27 सितंबर 2025
एक अंग्रेजी की कहावत है “Judgement delayed, Judgement denied” यानि “न्याय में देरी, न्याय न मिलना” एक समान है। आज न्यायालयों में लाखों ऐसे केस हैं जो 30-40 बरस से चल रहे हैं, और वादी परिवादी न्याय की आस में जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुंच गए।
एक केस में तो हाईकोर्ट से आजीवन कारावास का निर्णय आने पर वादी को जेल हुई और 15 बरस जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे निर्दोष मानते हुए रिहा कर दिया। पन्द्रह बरस जेल में रहने का कारण था कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए उसे तारीख ही नहीं मिली, पंद्रह बरस बाद उसे जब निर्णय मिला तो निर्दोष साबित हुआ, क्योंकि उसका अपराध सिद्ध ही नहीं हो पाया। उस व्यक्ति के जीवन के पंद्रह बरस जेल में कटे, सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो गई, घर-बार बिक गया, परिवार बिखर गया, जबकि वह दोषी नहीं था। इसके लिए किसको दोषी माना जाय, न्याय प्रणाली को अथवा न्यायायिक व्यवस्था को।

हाल में ऐसा ही एक मामला सामने आया है, जब मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम (MPSRTC) के पूर्व बिलिंग सहायक जागेश्वर प्रसाद अवधिया को 39 साल बाद आखिरकार न्याय मिल गया। 1986 में ₹100 की रिश्वत के मामले में लोकायुक्त के जाल में फंसे अवाधिया को 2004 में निचली अदालत ने दोषी ठहराया था। अब छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया। हाई कोर्ट ने अपर्याप्त सबूत और तमाम खामियों के आधार पर दोषसिद्धि रद्द की।

अदालत ने कहा कि केवल नोटों की बरामदगी दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं, जब तक रिश्वत की मांग और स्वेच्छा से स्वीकार्यता संदेह से परे साबित न हो। लेकिन उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके अवाधिया के लिए यह फैसला खोखली जीत है। उन्होंने कहा अब न्याय मिला तो क्या मिला जब जीवन ही शेष नहीं रहा।
72 बरस का वृद्ध व्यक्ति न्याय की आस में अपना सारा जीवन गंवा बैठा, मासिक वेतन भी आधा मिलता था, परिवार भी भुखमरी के कगार पर पहुंच गया, पैरवी में तमाम पैसा खर्च हुआ वो अलग।
क्या इस दर्द को कभी न्याय के मंदिर में बैठे न्यायाधीश महसूस कर सकेंगे। एक कहावत है “भगवान के घर देर है अंधेर नहीं”। किसी भी न्याय में होने वाली देरी भी अंधेर के समान है।
न्यूज़ डेस्क





