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प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनी भारतीय राजनीतिक पार्टी: विरासत परस्ती और जमींदारी ने लोकतंत्र को बनाया गिरवी

आगरा: शनिवार 8 नवंबर 2025

भारत में कुल 2,827 राजनीतिक पार्टियाँ पंजीकृत हैं—जिनमें 6 राष्ट्रीय, 58 राज्य, और 2,763 गैर-मान्यता प्राप्त दल शामिल हैं। यह आंकड़ा चुनाव आयोग (ECI) की 23 मार्च 2024 की रिपोर्ट का है। जनवरी 2025 में जनसेना को राज्य पार्टी का दर्जा मिलने के बाद इस सूची में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।

राष्ट्रीय पार्टियाँ हैं: BJP, INC, AAP, BSP, CPI(M) और NPP।इतनी पार्टियों के बावजूद सवाल वही है—लोकतंत्र की शुचिता बार-बार क्यों लांछित होती है?भारत का लोकतंत्र अब किसी सोची-समझी योजना से ज़्यादा ‘बाई चांस’ का कार्टेल बन गया है। राजनीति यहाँ आज़ादी या समानता का आंदोलन नहीं, बल्कि घरानों और दौलतमंदों का धंधा बन चुकी है। जहाँ कभी संविधान की आत्मा बोलती थी, वहाँ अब मार्केटिंग स्ट्रैटेजी गूँजती है।

चुनाव अब उम्मीद का पर्व नहीं, नाटकीय इवेंट हैं—जहाँ मतदाता तमाशबीन है और सत्ता कुछ गिने-चुने घरानों की मिल्कियत। जनता की हुकूमत अब खानदानों और मैनेजर्स, फाइनेंसरों की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील हो चुकी है।समाजविज्ञानी टी.पी. श्रीवास्तव कहते हैं—“आज ज़्यादातर भारतीय पार्टियाँ असल में ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियाँ’ हैं। मालिकाना हक़ विरासत में मिलता है, नेतृत्व चुना नहीं, तय किया जाता है। जवाबदेही जैसे कोई शब्द ही नहीं बचा। पार्टी का ऑफिस एक दफ़्तर है, वर्किंग कमेटी पारिवारिक बोर्ड और मीटिंगें नए वारिस की ताजपोशी का मंच।

मतदाता एक ‘साइलेंट शेयरहोल्डर’ है—जिसके पास न हक़ है, न आवाज़, बस टूटे वादों की रसीद।”अब ज़रा इन “कंपनियों” की बहीखातें देखिए—कांग्रेस पार्टी अब एक पारिवारिक ट्रस्ट बन चुकी है। सोनिया गांधी मानद चेयरपर्सन, राहुल गांधी स्थायी मैनेजिंग डायरेक्टर, और प्रियंका ब्रांड एम्बेसडर। वर्किंग कमेटी में वफ़ादारी काबिलियत से बड़ी योग्यता है। आख़िरी बार पार्टी में असली चुनाव तब हुआ जब सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया लायी गईं। उसके बाद हर बदलाव एक पारिवारिक रस्म भर है।

समाजवादी पार्टी (SP) उत्तर प्रदेश में अब अखिलेश यादव प्राइवेट लिमिटेड है—जहाँ सत्ता का ट्रांसफ़र मुलायम से बेटे तक एक मीटिंग में तय हुआ। 2022 में नारा था “एक परिवार, एक टिकट”, लेकिन उम्मीदवारों में आधा खानदान शामिल था।बहुजन समाज पार्टी (BSP) दशकों से “मायावती एंड कंपनी” के नाम पर रजिस्टर्ड है, जहाँ सबसे बड़ा जलसा उनके जन्मदिन पर होता है।

महाराष्ट्र की शिवसेना की कहानी तो किसी कॉर्पोरेट थ्रिलर से कम नहीं। बाला साहेब ने नींव रखी, उद्धव ने विरासत संभाली, और एकनाथ शिंदे ने ‘होस्टाइल टेकओवर’ कर लिया। चुनाव आयोग ने फैसला मार्केट वैल्यू देखकर सुनाया—जिसके पास ज़्यादा MLA, वही मालिक। अब सियासत वैचारिक नहीं, शेयर मार्केट का खेल है।राजद (RJD) बिहार में लालू प्रसाद यादव परिवार की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है। टिकट रिश्तेदारों में बाँटे जाते हैं; मिसा भारती बार-बार हारने के बावजूद उम्मीदवार बनती हैं, तेजप्रताप यादव बिना अनुभव के युवा विंग के हेड हैं।

डीएमके (DMK) तमिलनाडु में एक पारिवारिक एस्टेट है। एम.के. स्टालिन के बेटे उदयनिधि मंत्री बन गए, और पुराने योद्धा साइडलाइन। जयललिता के बाद एआईएडीएमके (AIADMK) भी वारिसों की खींचतान में फँसी है।जनता दल (सेक्युलर) पूरी तरह देवगौड़ा परिवार की मिल्कियत है—2024 में प्रज्वल रेवंनना को फिर टिकट मिला, जबकि उन पर गंभीर आरोप थे।राजनीतिक विश्लेषक प्रो. पारस नाथ चौधरी का कहना है—“दल-बदल विरोधी कानून, जो ‘घोड़ा-खरीद’ रोकने के लिए बना था, अब ‘मर्जर एंड एक्विज़िशन’ का नया टूल बन गया है। महाराष्ट्र से लेकर मध्यप्रदेश, मणिपुर तक सरकारें एक रात में गिरती-बनती हैं। स्पीकर अब किसी कंपनी के सेक्रेटरी की तरह हैं, जो बहुमत वाले बोर्ड को वैध ठहराते हैं।

चुनाव आयोग अब बस एक रजिस्ट्रार रह गया है’

2019–2023 के बीच पार्टियों ने करीब 15,000 करोड़ रुपये चंदे में पाए—जिनमें से 70% इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए थे। सुप्रीम कोर्ट ने इन बॉन्ड्स को अवैध ठहराया, मगर तब तक सबूत मिट चुके थे। पार्टियाँ आज भी सूचना के अधिकार (RTI) से बाहर हैं, और लॉ कमीशन की “आंतरिक लोकतंत्र” संबंधी सिफारिशें धूल खा रही हैं।आज की सियासत एक बिज़नेस मॉडल है।

पार्टी दफ़्तर अब कॉर्पोरेट कमांड सेंटर्स की तरह हैं—डेटा एनालिस्ट, मीडिया टीम, ब्रांडिंग कंसल्टेंट्स से लैस। चुनाव अभियान अब प्रोडक्ट लॉन्च की तरह होते हैं। जनता का भरोसा घाटे में है, पर सत्ता का शेयर लगातार बढ़ रहा है।यह लोकतंत्र नहीं, सामंती हुकूमत का मॉडर्न संस्करण है—जहाँ पूँजी, प्रचार और शक्ति ही असली संपत्ति हैं; और असली घाटा है जनता का एतबार।

जब सियासत मलकियत बन जाए, तो एतराज़ गुनाह बन जाता है।भारत का गणराज्य अभी ज़िंदा है—मगर साँसें उखड़ी हुई हैं।जब तक राजनीतिक दलों की किताबें जनता के सामने नहीं खुलेंगी, और जवाबदेही संस्थागत नहीं बनेगी, तब तक मतदाता बस एक ऐसा शेयरहोल्डर रहेगा जिसे कभी डिविडेंड नहीं मिलता।अब वक्त है—नई सियासत का, जो हो खुली, पारदर्शी और जनता के प्रति जवाबदेह।

बृज खंडेलवाल

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