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ताज के शहर की सफाई: स्वच्छ भारत के दस साल में प्रगति, चुनौतियां और आगे का रास्ता

आगरा : गुरुवार 12 नवंबर 2025

विदेश से बारह साल बाद अपने पीहर आगरा लौटीं सुनीता जी की आंखें हैरानी से भर गईं। खेरिया हवाई अड्डे से लेकर मॉल रोड, यमुना किनारे वाले रास्ते से होते हुए विजय नगर तक का सफर उनके लिए एक नए शहर की सैर जैसा था। “रात में फतेहाबाद रोड से गुजरते हुए, मेट्रो रेल की रोशनी से जगमगाता शहर देखकर मैं दंग रह गई,” वह कहती हैं, “यह वह आगरा नहीं रहा जिसे मैं छोड़कर गई थी।”सुनीता की यह प्रतिक्रिया अकेली नहीं है।

लंबे अरसे बाद लौटने वालों के लिए आगरा एक बदलाव की कहानी बनकर उभरा है। ताजमहल के सफेद गुंबदों पर पड़ती सूरज की पहली किरणें अब न सिर्फ इसकी ऐतिहासिक शान, बल्कि स्वच्छ भारत मिशन के एक दशक में हुई प्रगति को भी रोशनी में लाती हैं। हालांकि, यह कहानी पूरी तरह से गुलाबी नहीं है। यमुना के किनारे लगे कूड़े के ढेर, तंग गलियों में सड़ता कचरा, और कभी-कभार हवा में तैरती दुर्गंध अब भी मौजूद है। लेकिन डोर-टू-डोर कचरा संग्रह, बढ़ती मशीनीकृत सफाई, और बेहतर निगरानी ने शहर को एक नई दिशा दी है।”हमें आगरा की तुलना 2010 के आगरा से करनी चाहिए, लंदन या पेरिस से नहीं,” कहते हैं आईटी प्रोफेशनल रोहित, जो अक्सर विदेश यात्रा करते हैं। सवाल यह है कि क्या स्वच्छ भारत मिशन ने आगरा को वाकई साफ किया है? जवाब है – हाँ, काफी हद तक, लेकिन अभी बहुत लंबा सफर तय करना बाकी है।

2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान का बिगुल फूंका, तो आगरा समेत पूरे देश ने इसे एक जनआंदोलन की तरह अपनाया। शौचालय निर्माण इसका केंद्रबिंदु बना। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि आगरा जिले में हज़ारों शौचालय बने और शहर को खुले में शौच मुक्त (ODF) घोषित किया गया। नगर निगम के रिकॉर्ड के मुताबिक, 5,728 घरेलू, 579 सामुदायिक और 176 सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण हुआ। ताजमहल और आसपास के इलाकों को ‘स्वच्छ आइकॉनिक प्लेस’ के तहत चमकाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च किए गए।

हाल के वर्षों, खासकर 2020 से 2025 के बीच, आगरा की सफाई व्यवस्था में उल्लेखनीय बदलाव आया है। स्वच्छ सर्वेक्षण 2023-24 में शहर 85वें पायदान पर था, लेकिन 2024-25 में उसने एक साल में 75 पायदान की छलांग लगाकर देश में 10वां स्थान हासिल किया। यह उछाल महज आंकड़ा नहीं, बल्कि सिस्टमैटिक कोशिशों का नतीजा है।कूड़े के प्रबंधन में क्रांतिकारी बदलाव आया है। कुबेरपुर डंपसाइट, जो कभी 1.9 मिलियन टन कचरे का विशाल जहरीला पहाड़ हुआ करता था, अब एक “इंटीग्रेटेड वेस्ट मैनेजमेंट सिटी” में तब्दील हो गया है। 3आर के सिद्धांत—कम करो, दोबारा इस्तेमाल करो, रीसायकल करो—को अपनाते हुए स्रोत पर ही कचरे के 100% अलगाव पर जोर दिया गया।

डोर-टू-डोर कचरा संग्रह प्रणाली ने शहर का चेहरा बदल दिया है। 2019 तक ही 91.66% घरों में अलग-अलग कचरा संग्रहण शुरू हो गया था, जो अब लगभग पूर्ण रूप से लागू है। नगर निगम ने मिनी टिपर, ऑटो टिपर जैसी मशीनों का बेड़ा खड़ा किया है, जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। पहले जहां कचरा सड़कों पर बिखरा रहता था, अब उसे नियमित रूप से घर-घर से एकत्र किया जाता है।

मानव संसाधन में भी बदलाव आया है। सफाई कर्मचारियों की संख्या बढ़ी है और काफी कार्य आउटसोर्स किया गया है। एक महत्वपूर्ण कदम रैगपिकर्स को मुख्यधारा में लाना रहा। अब वे सिस्टम का हिस्सा बनकर, बेहतर परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। बेहतर फॉलो-अप के लिए 600 से अधिक सार्वजनिक शौचालयों को अपग्रेड कर उनकी ऑनलाइन मॉनिटरिंग की जा रही है।टेक्नोलॉजी ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। बायो-मेथेनेशन प्लांट और कम्पोस्ट यूनिट लगाकर कचरे को ऊर्जा और खाद में बदला जा रहा है। यही वजह है कि स्वच्छ वायु सर्वेक्षण 2025 में आगरा को देश की तीसरी सबसे स्वच्छ हवा वाला शहर घोषित किया गया। ये सभी बदलाव दिखाते हैं कि स्वच्छ भारत मिशन ने आगरा को न सिर्फ ODF बनाया, बल्कि उसे ‘जीरो वेस्ट सिटी’ बनने की राह पर भी आगे बढ़ाया है।लेकिन यह तस्वीर का पूरा सच नहीं है। यमुना का किनारा, या मोती महल, नगला अजीता और गोकुलपुरा जैसे इलाके आज भी शहर की सफाई की अधूरी कहानी बयां करते हैं।एक नगर निगम रिपोर्ट के मुताबिक, अब भी लगभग 15,000 घरों में शौचालय नहीं हैं, जबकि 10,000 नए आवेदन लंबित पड़े हैं। खुले में शौच पर 100 रुपये के जुर्माने का कोई खास असर देखने को नहीं मिल रहा।

कचरा प्रबंधन अब भी एक बड़ी चुनौती है। आगरा में रोजाना 916 टन कचरा पैदा होता है, यानी हर व्यक्ति औसतन 0.48 किलो कचरा फेंकता है। इसका एक बड़ा हिस्सा अब भी वैज्ञानिक तरीके से नहीं निपटाया जाता और सड़कों-नालियों से होता हुआ अंततः यमुना में जा पहुंचता है।और यहीं आकर यमुना की दुर्दशा शहर की सफाई की पोल खोल देती है। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, आगरा के आठ बड़े नालों से रोजाना 205.57 मिलियन लीटर गंदा पानी सीधे यमुना में गिरता है। शहर के सात सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स की कुल क्षमता 180.25 मिलियन लीटर है, जबकि वास्तविक डिस्चार्ज 289 मिलियन लीटर तक पहुंच जाता है। नतीजा, हर रोज लगभग 100 मिलियन लीटर अनट्रीटेड सीवेज सीधे नदी में जा रहा है। यमुना अब एक नदी नहीं, बहता हुआ नाला बनकर रह गई है।

यह एक कड़वी विडंबना है कि जिस शहर की पहचान दुनिया की सबसे खूबसूरत इमारत से है, वही शहर अपनी गंदगी को निगलने वाली नदी से जूझ रहा है।स्वच्छ भारत मिशन के एक दशक बाद भी आगरा का अनुभव बताता है कि सफाई महज दीवारों पर लिखे नारों या सेल्फी अभियानों तक सीमित नहीं रह सकती। सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “हमने कई इलाकों में देखा कि टॉयलेट बने जरूर, पर इस्तेमाल नहीं हो रहे। कहीं पानी की सप्लाई नहीं, तो कहीं सफाई करने वाला कोई नहीं। कुछ तो महीनों से बंद पड़े हैं।”पर्यटकों की शिकायतें भी कम नहीं हैं। शहर में साफ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालय ढूंढ़ना एक चुनौती बना हुआ है। कई बार वे या तो गंदे मिलते हैं या तालाबंद। विदेशी सैलानियों के लिए यह ताज के शहर में सबसे बड़ी निराशा है। लेकिन आगरा में आज भी गरीब बस्तियों, निर्माण श्रमिकों, ठेला चलाने वालों, और घुमंतू परिवारों तक यह अधिकार नहीं पहुंचा। स्वच्छता का अधिकार केवल दीवारों की स्लोगनबाजी नहीं, बल्कि सम्मानजनक जीवन का हिस्सा है—और यहीं मिशन की असली परीक्षा बाकी है।

अब सबसे बड़ा कार्य नागरिकों को शिक्षित करना है। लोगों को अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक बनाना, उन्हें सफाई में भागीदार बनाना आवश्यक है। व्यवहार परिवर्तन के बिना, मशीनें और जनशक्ति पर्याप्त नहीं होंगी। स्कूलों, समुदायों और मीडिया के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। नागरिकों को कचरा अलग-अलग फेंकने, पानी बचाने और खुले में शौच न करने की आदत डालनी होगी। जब तक हर व्यक्ति अपनी गली, मोहल्ले और नदी की सफ़ाई की ज़िम्मेदारी नहीं लेगा, तब तक सरकारी योजनाएँ बस आधे-अधूरे चमत्कार ही रहेंगी।

बृज खंडेलवाल

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