Home / Uncategorized / भारत के नए लेबर कोड: सुधार का ढोंग या मजदूरों के अधिकारों पर एक चुपचाप हमला?जब नौकरियां ही नहीं, तो जॉब सिक्योरिटी कैसी?

भारत के नए लेबर कोड: सुधार का ढोंग या मजदूरों के अधिकारों पर एक चुपचाप हमला?जब नौकरियां ही नहीं, तो जॉब सिक्योरिटी कैसी?

आगरा : सोमवार 22 नवंबर 2025

आगरा की एक हाउसिंग सोसायटी की सीढ़ियाँ चढ़ती रामवती आज कुछ ज़्यादा ही थकी हुई थी। उसके हाथों में झाड़ू-पोंछा था, लेकिन मन पर एक और बड़ा बोझ—सरकार के नए लेबर कोडों का डर। कल रात टीवी पर एंकरों की गर्जना थी, कि यह “ऐतिहासिक सुधार” है, रोजगार बढ़ेंगे, वेतन व्यवस्था सरल होगी। ट्विटर पर फ़ायदे गिनाए जा रहे थे। लेकिन रामवती को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस बात पर खुश हो—ओवरटाइम की उलझी गणना पर, छुट्टियों में कटौती पर, या इस आशंका पर कि कहीं उसका रोज़गार ही इन चमचमाते “सुधारों” की पहली बलि न बन जाए।

उसका 22 साल का बेटा अनिल, बगैर नौकरी के परिवार पर एक बोझा बना हुआ है, पर मोहल्ले वाले कह रहे हैं अब जॉब सिक्योरिटी की गारंटी मिल गई है!!रामवती अकेली नहीं है। भारत के करोड़ों असंगठित मजदूर इन नए कोडों को उत्साह से नहीं, शंका और चिंता से देख रहे हैं। जिनको सुरक्षा का आश्वासन दिया गया था, वही अब सबसे ज़्यादा असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।इन लेबर कोड्स को सरकार ने “सरलीकरण” का नाम दिया है, लेकिन ज़मीन पर यह ज़्यादा एक कॉरपोरेट-फ्रेंडली ढांचा बनते बनते नजर आ रहे हैं, जहाँ उद्योगपतियों को अधिक लचीलापन और कम जवाबदेही का भरोसा मिला है। खासकर असंगठित मजदूर—जो पहले ही सुरक्षा और स्थायित्व से वंचित हैं, अब ठेकेदारी और गिग मॉडल की कानूनी मान्यता से और भी कमजोर पड़ेंगे।

भारत की श्रमशक्ति लगभग 64 करोड़ है, जिनमें 90–93% यानी करीब 57–58 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। ये निर्माण मजदूर, घरेलू कामगार, खेतिहर श्रमिक, स्ट्रीट वेंडर, रिक्शा चालक और तेजी से बढ़ते गिग वर्कर शामिल हैं। इनमें से अधिकांश के पास न लिखित कॉन्ट्रैक्ट है, न सामाजिक सुरक्षा, न बीमा, न बीमारी के दिनों में कोई सहारा। औसत दिहाड़ी 200–300 रुपये, कोई पेड लीव नहीं, महिलाओं पर दोगुना बोझ, घर की जिम्मेदारी अलग, काम का तनाव अलग। और इन नए कोड्स ने इनमें से अधिकांश को अब भी दायरे में शामिल नहीं किया है। घरेलू कामगार, जिनकी संख्या लगभग 5 करोड़ है, लगभग पूरी तरह बाहर हैं।OSH (Occupational Safety and Health) नियमों में छोटे निर्माण प्रोजेक्ट्स को छूट दी गई है, जहाँ दुर्घटनाओं का खतरा सबसे ज़्यादा रहता है।उधर MSME सेक्टर, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जटिल कंप्लायंस और नए योगदानों के बोझ से परेशान है। सोशल सिक्योरिटी कोड के तहत गिग वर्कर फंड और ईएसआई–PF में अतिरिक्त 1–2% योगदान छोटे कारोबारियों पर दबाव बढ़ाएगा।

चार कोड, 29 कानून खत्म—सुधार या उलझाव का नया जाल?21 नवंबर 2025 को केंद्र सरकार ने चार लेबर कोड लागू किए: वेजेज कोड, इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड, सोशल सिक्योरिटी कोड, OSHWC कोड। ये दावा किया गया है कि 29 पुराने कानूनों को समेट कर व्यवस्था सरल होगी। सरकार के अनुसार राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन, डिजिटल भुगतान, गिग वर्कर्स की सुरक्षा, 40 से ऊपर के मजदूरों के लिए मुफ्त हेल्थ चेकअप और महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम की अनुमति जैसी सुविधाएँ “नए भारत” का संकेत हैं।लेकिन सुधार की कहानी जितनी सहज बताई गई, उतनी है नहीं।

सबसे बड़ी समस्या ही परिभाषाओं से शुरू होती है। “वर्कर कौन है?” इसका जवाब हर कोड में अलग है। कई मामलों में 15,000–18,000 रुपये से अधिक कमाने वाले कर्मचारियों को सुरक्षा के कई पहलुओं से बाहर कर दिया गया है। यानी सरलीकरण का दावा कर actually चीजें और उलझा दी गई हैं।

फिक्स्ड-टर्म कॉन्ट्रैक्ट की व्यवस्था ने कंपनियों को कर्मचारियों को किसी भी समय हटाने की लगभग खुली छूट दे दी है, स्थायी नौकरी की अवधारणा ही कमजोर हो गई है।राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन, प्रतिदिन कितना होना चाहिए, सब राज्यों में अलग अलग स्थिति है। 2019 से 2025 के बीच देश भर में लेबर यूनियनों ने इन कोड्स के खिलाफ विरोध दर्ज किया था। इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस की सिफ़ारिशें भी थीं कि कई प्रावधान मजदूरों के हितों पर प्रतिकूल असर डालेंगे। बावजूद इसके, इन सुझावों को लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

AITUC, INTUC जैसी प्रमुख यूनियनें इन कोड्स को “मजदूर विरोधी” और “अधिकारों की कटौती” बता रही हैं।

जुलाई 2025 में 25 करोड़ मजदूरों की देशव्यापी हड़ताल इसी असंतोष की झलक थी। 26 नवंबर 2025 को एक और बड़ा आंदोलन प्रस्तावित है।कहाँ किसे फायदा, और किसे सबसे ज़्यादा नुकसान?• असंगठित मजदूर (57–58 करोड़) – सबसे ज़्यादा प्रभावित; सुरक्षा और स्थायित्व दोनों कमजोर।• मैन्युफैक्चरिंग – 300 तक कर्मचारियों को बिना सरकारी अनुमति हटाने की अनुमति; बड़ी कंपनियों को राहत।• गिग वर्कर – कागज़ पर सुरक्षा, लेकिन जमीनी हक़ीक़त अभी अनिश्चित।• घरेलू कामगार (5 करोड़) – लगभग पूरी तरह दायरे से बाहर।• निर्माण क्षेत्र – छोटे प्रोजेक्ट्स में सुरक्षा नियम ढीले।• आईटी सेक्टर – कुछ लचीलापन बढ़ा; फायदा साफ दिखता है।• माइन्स और खतरनाक उद्योग – निरीक्षण व्यवस्था कमजोर, क्योंकि इंस्पेक्टर अब “फैसिलिटेटर” बनेंगे।

• MSME – कागज़ पर राहत, व्यवहार में बढ़ता वित्तीय बोझ।

कुल मिलाकर तस्वीर एकतरफ़ा है—फायदा मुख्य रूप से नियोक्ताओं और उद्योगपतियों को ही मिलेगा। जबकि मजदूरों, खासकर असंगठित क्षेत्र, महिलाओं, प्रवासी श्रमिकों और गिग वर्कर्स को सीमित, अधूरी और प्रतीकात्मक सुरक्षा मिल सकती है।

ऊपर से सुधार की पॉलिश दिख रही है, लेकिन अंदर वही पुराना ढांचा बरकरार है। इन नए लेबर कोड्स को सुधार कहा जा रहा है, लेकिन असल में यह कॉरपोरेट हितों के अनुरूप एक नई संरचना गढ़ने का प्रयास अधिक लगता है। पर रामबती, अनिल, नत्थू सिंह को उम्मीद की किरण दिख रही है। लोगों को लग रहा है कि उनका सुनहरा भविष्य सुरक्षित हो गया है, क्योंकि क्षेत्र के नेता ये भरोसा दिला रहे हैं।

बृज खंडेलवाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *